शनिवार, 14 अप्रैल 2012
अम्बेडकर जयंती !
आज अवकाश का दिन है क्योंकि आज भीम राव अम्बेडकर जी की जयंती है। अम्बेडकर जी भारत के गणतंत्र राष्ट्र के लिए संविधान निर्माताओं में प्रमुख स्थान रखते हें और इसके लिए देश उनके प्रति कृतज्ञ है ।
लेकिन आज कई वर्षों से अम्बेडकर जी के नाम को एक तमगा बना लिया गया है और वे जातिगत संपत्ति बन गए हें । चाहे वह उनके नाम को लेकर हो या फिर उनकी मूर्ति को लेकर। चाहे वे जो उनकी मूर्ति के विभिन्न आकार में बनवा कर अपने घर या झोपड़ी के आगे लगा कर रहने लगते हें वह अवैध कब्जे के लिए एक साधन बना लिया गया है। हम कहते हें कि दलित और पिछड़ों को अपने अधिकार और उससे जुड़े कानूनों की जानकारी नहीं है इस लिए वे शोषित होते रहते हें। ऐसा कुछ भी नहीं है वे जो इससे अनभिज्ञ है वे तो इस बात के लिए जाने जा सकते हें लेकिन वे जो यह जानते हें कि वे अम्बेडकर जी की मूर्ति लगा कर खुद को सुरक्षित कर लेंगे क्योंकि प्रशासन ही अगर उस मूर्ति के नाम पर कब्जाई गयी जमीन को मुक्त करने के लिए कार्यवाही करेगा तो जरूर ही कुछ राजनीतिक दल वाले और कुछ अपने को उनका प्रतिनिधि कहने वाले लोग दंगा फसाद करने से नहीं चूकेंगे। राजीनीति के तवे पर तुरंत ही अफवाहों की रोटियां सिंकनी शुरू हो जायेंगी।
मैं इस बात के लिए खुद गवाह हूँ की घर से निकल कर ऑफिस जाने तक या कहीं भी शहर में जाने तक अगर सबसे अधिक मूर्तियाँ किसी की दिखेंगी तो वे अम्बेडकर जी की होंगी। क्या उनकी पूजा की जाती है या रोज उस पर फूलमालाएं चढ़ाइ जाती हें ऐसा कुछ भी नहीं है बल्कि ये सिर्फ इस बात का प्रतीक है कि इसके पीछे जो घर बने हें वे अवैध हें। हर आकार की छोटे से लेकर बड़े तक मूर्तियाँ आपको सड़क के किनारे मिल जायेंगी। जो इसको लगाकर कब्ज़ा किये बैठे हें उन्हें ये नहीं मालूम है कि इस व्यक्तित्व ने देश के लिए या फिर जाति के लिए क्या किया था? हाँ ये जरूर कहेंगे कि ये हमार मसीहा हें। शायद वे इस मसीहा शब्द के पूर्ण अर्थ से भी वाकिफ नहीं होंगे। हाँ इससे जरूर परिचित हें कि इसको लगा लेने से हम सुरक्षित हें और हमारा कब्ज़ा कल वैध हो जाएगा।
अम्बेडकर जी के नाम और उनकी मूर्ति को भुनाने का धंधा करने वाले कुछ स्वार्थी तत्व निजी स्वार्थ के लिए प्रयोग कर रहे हें। कोई गाँधी जी , नेहरु या किसी भी शहीद की मूर्ति नहीं लगाएगा. सबसे अधिक श्रद्धा स्वार्थ की होती है और वही बनी हुई है। इस विषय में भी आचार संहिता बनायीं जानी चाहिए कि अवैध कब्जों को वैध बनाने के लिए मूर्तियों या फिर मंदिरों को प्रयोग न किया जाय। अगर किया जाय तो फिर उसकी अनुमति स्थानीय सरकार द्वारा लेना आवश्यक कर दिया जाय। संविधान में दी गयी स्वतंत्रता के अधिकार का दुरूपयोग जो बढ़ता चला जा रहा है उस पर अंकुश भी लगाना उतना ही जरूरी है।
शनिवार, 7 अप्रैल 2012
ये कैसे संरक्षा गृह ?
चित्र गूगल के साभार : बालिका संरक्षा गृह
सरंक्षा गृह अपने नाम को कितना सार्थक कर रहे हें ? इस बात को सिर्फ एक घटना के प्रकाश में आने से ही सिद्ध हो गया है। बाकी और गृहों के बारे में भी छानबीन जरूरी है। सरकार इनके पोषण के लिए पर्याप्त अनुदान देती है और पर्याप्त कर्मचारी होते हें । शेष सभी सुविधाएँ भी दी जाती हें । वह बात और है कि वहाँ के जिम्मेदार अधिकारी उन सुविधाओं को कितना उनको उपलब्ध कराते हें और शेष कहाँ उपयोग में लाते हें?
इलाहबाद के तेलियर गंज स्थित बाल संरक्षा गृह शिवकुटी में जो बात सामने आई है वह शर्म से डूबने वाली होने के साथ साथ बच्चियों के साथ हो रही अनदेखी या फिर जानबूझ कर की गयी अनदेखी को प्रकाश में लगा रही है। वहाँ के एक चौकीदार द्वारा बच्चियों के साथ दिन में लगातार कर रहे दुराचार की घटना ने मानवता का सिर नीचे तो किया है वहाँ के प्रशासन के ऊपर भी सवालिया निशान लगा दिया है। वहाँ दिन में ड्यूटी पर रहने वाले चौकीदार के द्वारा एक नहीं कई बच्चियों के साथ दुराचार होता रहा और वहाँ की अधीक्षिका जो कि दिन भर वहाँ रहती हें और शेष महिला कर्मचारी इस बात से बेखबर कैसी रही ? इस तरह के लोगों के हावभाव और गतिविधियाँ संदिग्ध रहती हें और उसे अगर एक महिला न भांप पाए तो शर्म की बात है या फिर सिर्फ अपने पद और वेतन के लिए वहाँ उपस्थिति दर्ज करने वाली बात कही जायेगी।
अधीक्षिका महोदया वह सिर्फ अपने चैम्बर में या कमरे में बैठ कर क्या करती रहती थी ? कभी उन्होंने उन बच्चियों से उनका हालचाल पूछा होता तो शायद वे कुछ बता पाती वे बच्चियां जो दस साल से काम उम्र की हैं इसका अर्थ नहीं जानती हें , वे क्या शिकायत करेंगी ? और अधीक्षिका महोदया इस बात के इन्तजार में रही कि जब तक बच्चियां शिकायत नहीं करेंगी तो वे जांच कैसी करवाती ? उनके पास कोई शिकायत आई ही नहीं।
उनसे एक सवाल क्या वे अपनी बेटियों को भी इसी तरह आँखें मूँद कर नौकरों के सहारे छोड़ कर आती हें और लौट कर अपने बच्चियों से कुछ भी नहीं पूछती हें? या फिर उनसे शिकायत के लिए इन्तजार में रहती हें और आँखें मूँद कर रहती हें। क्या वे अपने बच्चों को आया के सहारे भी छोडती हें तो अपनी सारी इन्द्रियां सक्रिय नहीं रखती हें?
कहीं के भी हॉस्टल या संरक्षा गृह की बच्चियां वहाँ की अधीक्षिका के लिए अपने बच्चों के समान ही होती हें। वे अनाथ या तिरस्कृत बच्चियां अपनापन और प्यार कहाँ से खोजेंगी? फिर इतना गैर जिम्मेदाराना काम क्यों?
इसके साथ तमाम प्रश्न खड़े हो जाते हें --
- क्या वहाँ के किसी भी कर्मचारी ने ये नहीं देखा कि इस चौकीदार का बच्चियों के प्रति क्या हाव भाव और गतिविधियाँ हैं? एक नहीं दो नहीं वहाँ पर पूरे ९ कर्मचारी काम करते हें और सब के सब बेखबर रहते हें या फिर सब की जानकारी में बच्चियों के साथ दुराचार होता रहा ?
--जहाँ पर बच्चियां रहती हों वहाँ पर संरक्षा गृह में अन्दर खाने या सफाई का काम करने वाले कर्मचारी महिला ही होनी चाहिए। पुरुषों की आवश्यक हो तो उन्हें बाहर तक ही रखा जाय।
--संरक्षिका को सिर्फ दिन में नहीं बल्कि पूर्णकालिक रहना चाहिए , रात की सुरक्षा को अनदेखी न किया जाय।
--सरकारी संस्थान क्या सिर्फ कागजों पर सुविधाओं और सुरक्षा के दावे करते हें?
--ऐसे संरक्षा गृहों में औचक निरिक्षण ही होना चाहिए जैसे कि अभी कानपुर में भी एक महिला संरक्षा गृह में हुआ कि वहाँ पर रहने वाली युवतियों में आधे से अधिक बीमार थीं और उनके रहने की व्यवस्था सबके साथ ही थी। न तो वहाँ के प्रशासन को फैलाने वाले संक्रमण की चिंता थी और न ही उन सबके स्वास्थ्य की।
इन सवालिया निशानों को सिर्फ एक संरक्षा गृह के कर्मचारियों के निलंबन से उत्तर नहीं खोजा जा सकता है बल्कि लगाम ऐसी सभी संस्थानों पर कासी जानी चाहिए ताकि भविष्य में इसकी कहीं भी पुनरावृत्ति न हो।
सरंक्षा गृह अपने नाम को कितना सार्थक कर रहे हें ? इस बात को सिर्फ एक घटना के प्रकाश में आने से ही सिद्ध हो गया है। बाकी और गृहों के बारे में भी छानबीन जरूरी है। सरकार इनके पोषण के लिए पर्याप्त अनुदान देती है और पर्याप्त कर्मचारी होते हें । शेष सभी सुविधाएँ भी दी जाती हें । वह बात और है कि वहाँ के जिम्मेदार अधिकारी उन सुविधाओं को कितना उनको उपलब्ध कराते हें और शेष कहाँ उपयोग में लाते हें?
इलाहबाद के तेलियर गंज स्थित बाल संरक्षा गृह शिवकुटी में जो बात सामने आई है वह शर्म से डूबने वाली होने के साथ साथ बच्चियों के साथ हो रही अनदेखी या फिर जानबूझ कर की गयी अनदेखी को प्रकाश में लगा रही है। वहाँ के एक चौकीदार द्वारा बच्चियों के साथ दिन में लगातार कर रहे दुराचार की घटना ने मानवता का सिर नीचे तो किया है वहाँ के प्रशासन के ऊपर भी सवालिया निशान लगा दिया है। वहाँ दिन में ड्यूटी पर रहने वाले चौकीदार के द्वारा एक नहीं कई बच्चियों के साथ दुराचार होता रहा और वहाँ की अधीक्षिका जो कि दिन भर वहाँ रहती हें और शेष महिला कर्मचारी इस बात से बेखबर कैसी रही ? इस तरह के लोगों के हावभाव और गतिविधियाँ संदिग्ध रहती हें और उसे अगर एक महिला न भांप पाए तो शर्म की बात है या फिर सिर्फ अपने पद और वेतन के लिए वहाँ उपस्थिति दर्ज करने वाली बात कही जायेगी।
अधीक्षिका महोदया वह सिर्फ अपने चैम्बर में या कमरे में बैठ कर क्या करती रहती थी ? कभी उन्होंने उन बच्चियों से उनका हालचाल पूछा होता तो शायद वे कुछ बता पाती वे बच्चियां जो दस साल से काम उम्र की हैं इसका अर्थ नहीं जानती हें , वे क्या शिकायत करेंगी ? और अधीक्षिका महोदया इस बात के इन्तजार में रही कि जब तक बच्चियां शिकायत नहीं करेंगी तो वे जांच कैसी करवाती ? उनके पास कोई शिकायत आई ही नहीं।
उनसे एक सवाल क्या वे अपनी बेटियों को भी इसी तरह आँखें मूँद कर नौकरों के सहारे छोड़ कर आती हें और लौट कर अपने बच्चियों से कुछ भी नहीं पूछती हें? या फिर उनसे शिकायत के लिए इन्तजार में रहती हें और आँखें मूँद कर रहती हें। क्या वे अपने बच्चों को आया के सहारे भी छोडती हें तो अपनी सारी इन्द्रियां सक्रिय नहीं रखती हें?
कहीं के भी हॉस्टल या संरक्षा गृह की बच्चियां वहाँ की अधीक्षिका के लिए अपने बच्चों के समान ही होती हें। वे अनाथ या तिरस्कृत बच्चियां अपनापन और प्यार कहाँ से खोजेंगी? फिर इतना गैर जिम्मेदाराना काम क्यों?
इसके साथ तमाम प्रश्न खड़े हो जाते हें --
- क्या वहाँ के किसी भी कर्मचारी ने ये नहीं देखा कि इस चौकीदार का बच्चियों के प्रति क्या हाव भाव और गतिविधियाँ हैं? एक नहीं दो नहीं वहाँ पर पूरे ९ कर्मचारी काम करते हें और सब के सब बेखबर रहते हें या फिर सब की जानकारी में बच्चियों के साथ दुराचार होता रहा ?
--जहाँ पर बच्चियां रहती हों वहाँ पर संरक्षा गृह में अन्दर खाने या सफाई का काम करने वाले कर्मचारी महिला ही होनी चाहिए। पुरुषों की आवश्यक हो तो उन्हें बाहर तक ही रखा जाय।
--संरक्षिका को सिर्फ दिन में नहीं बल्कि पूर्णकालिक रहना चाहिए , रात की सुरक्षा को अनदेखी न किया जाय।
--सरकारी संस्थान क्या सिर्फ कागजों पर सुविधाओं और सुरक्षा के दावे करते हें?
--ऐसे संरक्षा गृहों में औचक निरिक्षण ही होना चाहिए जैसे कि अभी कानपुर में भी एक महिला संरक्षा गृह में हुआ कि वहाँ पर रहने वाली युवतियों में आधे से अधिक बीमार थीं और उनके रहने की व्यवस्था सबके साथ ही थी। न तो वहाँ के प्रशासन को फैलाने वाले संक्रमण की चिंता थी और न ही उन सबके स्वास्थ्य की।
इन सवालिया निशानों को सिर्फ एक संरक्षा गृह के कर्मचारियों के निलंबन से उत्तर नहीं खोजा जा सकता है बल्कि लगाम ऐसी सभी संस्थानों पर कासी जानी चाहिए ताकि भविष्य में इसकी कहीं भी पुनरावृत्ति न हो।
शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012
चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१७)
पल्लवी सक्सेना :
संघर्ष एक ऐसा शब्द है जिससे रूबरू कमोबेश सभी को जीवन में होना ही पड़ता है वह बात और है कि कभी लम्बा होता है और कभी छोटा । होता तो जरूर है । ये तो जन्म के बाद से ही शुरू हो जाता है क्योंकि कहते हें न कि बगैर रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती है । बस इसी तरह से अपनी जरूरतों को न बोलने तक वह पूरी करने के लिए रोने का सहारा लेता है ये भी एक संघर्ष है लेकिन उसके बड़े होने के साथ साथ ही उसकी बुद्धि का विकास होता है और संघर्ष के स्वरूपों का भी। आखिर में जब सही अर्थों में वह अपने जीवन को जीने के लिए प्रयास करने लगता है तब उसको पता चलता है कि इस में कितना संघर्ष किया। आज की प्रस्तुति पल्लवी सक्सेना की है भले ही उनकी अपनी न सही लेकिन उन्होंने किसी के संघर्ष को स्वीकार कर प्रस्तुति के लिए अनुशंसा की है और कुछ न कुछ हमें सीखने को तो हर पाठ से मिलता है।
संघर्ष
संघर्ष की यदि बात करें तो यह एक ऐसा शब्द है जो शायद पैदा होते ही मानव जीवन से जुड़ जाता है। जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तब से अपनी बात दूसरों को समझाने के लिए संघर्ष करता है और उसके जीवन का यह संघर्ष निरंतर उसके जीवन में आने वाले पड़ावों के हिसाब से चलता रहता है जैसे जब वह शिशु अवस्था से निकलता है तो उसके बाद आता है विद्यार्थी जीवन उसमें भी नित नई चीजों से उसका संघर्ष चला करता है, जैसे -जैसे उसकी जानकारी बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उसका संघर्ष भी बढ़ता जाता है। पहले स्कूल में होने वाली परीक्षा में पहले नंबर आने के लिए, अपने सहपाठियों से संघर्ष, फिर यदि अच्छे नंबरों से पास हो गया तो ठीक वरना अच्छे अंकों से उत्तीर्ण न होने के कारण पहले स्कूल वालों से, फिर घर पर माता-पिता के सवालों के और समझाने के कारणो को लेकर संघर्ष। इन सब से जैसे तैसे निजात मिल भी जाये तो फिर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान फिर वही संघर्ष की कोन सा विषय चुने कि आगे उसे अपने जीवन में जीविका चलाने हेतु फिर कोई और संघर्ष ना करना पड़े। किन्तु उस अवस्था में उसे दोहरा संघर्ष करना पड़ता है क्यूंकि पढ़ाई के साथ सामाजिक दबाव भी बढ़ने लगता है और लोग क्या कहेंगे जैसे प्रश्न खड़े होना प्रारंभ हो जाते हैं, जिसके दबाव में आकर जीवन का संघर्ष जीवन लक्ष्य प्राप्त करने हेतु और भी ज्यादा बढ़ जाता है।ऐसे ना जाने कितने संघर्ष है इस एक मानव जीवन में जिन्हें एक व्यक्ति को कभी खुद को स्थापित करने के लिए, तो कभी अपने परिवार के लिए, तो कभी समाज के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। यह संघर्ष सभी के जीवन में होते हैं चाहे वह लड़की हो या लड़का दोनों के अपने-अपने दायित्वों पर निर्भर रहता है उनके जीवन से जुड़ा संघर्ष विद्यार्थी जीवन में तो लगभग दोनों के संघर्ष एक से ही होते हैं। बदलाव आता है शादी के बाद, शादी के बाद यदि कोई लड़की अपने जीवन को कोई नया मोड देना चाहे तो उसे अपने ही परिवार के साथ ही संघर्ष करना पड़ता है, नई-नई शादी में दूसरे परिवार से आने के बाद ससुराल में आकर खुद को स्थापित करने के लिए भी हर एक लड़की को थोड़े बहुत छोटे-मोटे संघर्ष करने पड़ते हैं जो कि पहले तो बहुत ही ज्यादा हुआ करते थे मगर अब ज्यादातर लोग पढे लिखे होते हैं इसलिए अब यह संघर्ष, संघर्ष न रहकर समझोतों में बदल गए है। ऐसी ही एक संघर्ष की एक छोटी सी कहानी आज मैं आपको बताती हूँ।
मेरे जीवन में भी एक ऐसी नारी है जिसने अपने जीवन में कड़ा संघर्ष करके अपने परिवार को बखूबी चलाया अपना नाम बनाया, अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा के साथ-साथ बहुत ही अच्छे संस्कार सिखाये, उस महान महिला का नाम है उषा श्रीवास्तव जो कि मेरी सासु माँ हैं। उनका विवाह 18 वर्ष की आयू में एक संयुक्त परिवार में हुआ था और उस जमाने में सासों की क्या भूमिका होती है, यह मुझे आप सब को शायद बताने की जरूरत नहीं है। उनकी सासु माँ यानि मेरे पति देव की दादी का स्वभाव उन दिनों बहुत ही कठोर हुआ करता था ,ऐसे में घर की सबसे बड़ी बहू होने के नाते पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी केवल मेरी सासु माँ पर आ गयी थी। यहाँ तक की अपने दोनों छोटे देवरों की शादी तक मेरे सास-ससुर जी ने मिलकर ही कारवाई थी और फिर वही हुआ जैसा फिल्मों में होता है किसी कारणवश आपसी मतभेद बढ़े और नौबत यहाँ तक आ गई, कि सब अलग-अलग हो गए। जिस वक्त हमारा परिवार अलग हुआ उस वक्त बहुत ही बुरे हालात थे, तीन बच्चों का साथ ऊपर से उस वक्त पापा जी (ससुर जी) की नौकरी भी नहीं थी, ऐसे में किसी नए शहर में जाकर एक नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करना आसान बात नहीं होती। मगर उन्होने शुरुआत की, पहले सब सिंगरोली रहे और फिर जबलपुर आ गये, मगर और तो और कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वहाँ आने के बाद मम्मी जी (सासु माँ) ने शहनाज़ बियूटी पार्लर का कोर्स किया जिसकी परीक्षा उन्होने दिल्ली जाकर दी, ऐसे हालातों में कम शिक्षित होते हुए भी इतने मनोबल के साथ आगे बढ़ना भी कम बड़ी बात नहीं है जिसके अंतर्गत उन्हे पापा जी का भी पूर्ण सहयोग मिला इसलिए उनकी कामयाबी का जितना श्रेय मम्मी जी को जाता है उतना ही पापा जी को भी जाता है, यह पापा जी की ही होंसला अफ़ज़ाई थी जिसके बल पर मम्मी जी को कामयाबी का यह मुक़ाम हांसिल हो सका। खैर फिर उन्होने वह परीक्षा देने के बाद, कुछ दिन किसी दूसरे के पार्लर में काम किया, इस दौरान घर में सुबह जल्दी उठकर बच्चों को तैयार करना, उनका टिफिन ही नहीं बल्कि पूरा खाना बनाकर टाइम पर पार्लर जाना और टाइम से आकर फिर घर का सारा काम निपटाना। क्यूँकि उन दिनों पैसे की तंगी के कारण बाई रखना भी संभव नहीं था। इस सबके चलते उनको सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिल पाती थी, फिर भी उन्होने हार नहीं मानी और अपने बच्चों को जहां तक हो सका अच्छे से अच्छा खाना-पीना, शिक्षा दिलवाई क्यूँकि यही वो उनका संघर्ष का समय था, फिर धीरे-धीरे एक-एक पैसा जोड़कर मम्मी जी ने वही पार्लर खरीद लिया तब तो ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गई थी। क्यूंकि शुरुआत में मम्मी जी को ही सारा काम संभालना पड़ता था, फिर जब धीरे-धीरे उनका नाम बनना शुरू हुआ तब जाकर एक-एक करके उन्होने अपने पार्लर में दूसरी नई लड़कियों को सीखा कर तैयार किया और उन्हें वहीं नौकरी दी। क्यूंकि व्यापार में अपना नाम बनाने के लिए आपकी भूमिका के साथ साथ आपके काम करने वालों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिनका सहयोग ही आपके व्यापार को कामयाब बना सकता है। उनके मीठे स्वभाव के कारण उनको अपने कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग मिला। दिन रात यूं ही मेहनत करने के बाद उनको वो मुकाम मिला कि आज आपने इलाके में उनका आपना एक नाम है अपनी एक पहचान है, हर कोई उन्हें उनके काम के साथ नाम से जानता है, उनके स्वभाव से जानता है। इतने सालों व्यापार करने के बाद भी उनका स्वभाव में वो व्यापारियों वाला छल कपट नहीं आया जिसके आधार पर व्यापारी का व्यापार चलता है और शायद यही वो वजह है जो उनकी एक अलग पहचान का कारण है।
रविवार, 1 अप्रैल 2012
वर्ल्ड ऑटिज्म एवेयरनेस डे !
इस विषय में लिखने से पहले मैं बता दूं कि इस बारे में सारी जानकारी मेरी बेटी सोनू ने दी है जो कि औक्यूपेशनल थेरेपिस्ट है और ऑटिज्म के बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ही काम कर रही है।
वैसे तो ऐसे बच्चे सदियों से पाए जाते हें लेकिन इधर ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। इस रोग का सीधा सम्बन्ध बच्चे की मष्तिष्क में स्थित नर्वस सिस्टम से होता है। जो जन्मजात होता है और इसके लिए कोई भी स्थायी इलाज नहीं होता है , हाँ इतना अवश्य है कि उस बच्चे को इस काबिल बनाया जा सकता है कि वह अपने कामों को खुद कर सके और यह भी उसके ऑटिज्म के प्रकार पर निभर करता है कि उसको किस तरह की थेरेपी की जरूरत है । इसका निर्धारण उसको चिकित्सा देने वाला खुद ही निश्चित करता है। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि अब इस तरह के बच्चों में बढ़ोत्तरी का कारण क्या है?
-- इस तरह के बच्चों की बढती संख्या के पीछे आज अपने करियर के लिए संघर्ष कर रहे माँ बाप अपने की चिंता में बच्चे को जन्म देने के बारे में देर से सोचते हें ।
-- वैसे भी पढ़ाई और करियर के सेट होते होते आज कल विवाह की उम्र बढ़ रही है और विवाह की बढ़ती हुई उम्र इसका एक बड़ा कारण बन गया है।
--अगर परिवार में ऐसे सदस्य पहले से हों तब भी ऑटिज्मग्रस्त बच्चे हो सकते हें।
--जन्म के समय बच्चे का सामान्य व्यवहार न होना भी इस तरह की स्थिति को जन्म दे सकती है जैसे कि बच्चे का पैदा होते ही न रोना। बच्चे का गर्भ से बाहर आते ही रोने से उसके मष्तिष्क में रक्त का संचार पूरी तरह होने लगता है और सके मष्तिष्क में स्थित सारी रक्तवाहिनियाँ सुचारू रूप से है।
-- -- कभी कभी देखने में आता है कि बच्चा एकदम सामान्य होता है लेकिन अचानक तेज बुखार आ जाने से उसके बाद उसके व्यवहार या फिर शारीरिक और मानसिक क्रियायों में बदलाव आ जाता है . ऐसा भी संभव है तेज बुखार की स्थिति में मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है और कभी कभी इससे ब्रेन हैमरेज और पक्षाघात तक हो जाता है.
ऑटिज्म के शिकार बच्चों के क्या लक्षण हो सकते हें . पहले ही बता दूं कि ऑटिज्म के कई प्रकार हो सकते हें और इनमें से कुछ तो ऐसे भी हो सकते हें --
१. अति सक्रिय -- इसमें बच्चे जरूरत से अधिक शोर करने वाले , उठापटक करने वाले , चीखने और चिल्लाने वाले हो सकते हें .
२ .अति निष्क्रिय - इसमें बच्चे खामोश प्रवृत्ति के होते हें , वे बात सुन लेते हें तब भी कोई रूचि नहीं दिखाते हें या फिर आप उनसे कोई बात कहें तो आपके कहने के कई मिनट बाद वे उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हें.
बच्चों के लक्षण ---
कुछ इस प्रकार के भी हो सकते हें कि एकांत में रहना पसंद करते हों. उन्हें समूह में रहना पसंद नहीं होता है. किसी से अधिक मिलना जुलना भी वे पसंद नहीं करते हें.
--कभी कभी उन्हें किसी का अपने को छूना भी पसंद नहीं होता है.
--अँधेरे से डरते हें, अकेले से डरते हें.
--किसी विशेष वस्तु प्रेम भी हो सकता है , जैसे कि कोई भी चीज मैंने एक बच्चे को देखा उसको ढक्कन से विशेष प्रेम था किसी भी चीज का ढक्कन हो. अगर आप उसको हटा देंगे तो वह किसी और चीज के ढक्कन खोल कर ले लेगा.
--ऐसे बच्चे कभी कभी गले लगा लेने पर बहुत खुश हो जाते हें.
--कुछ अपने सामने वाले को मारने पीटने में भी आनंद लेते हें, ऐसे में सामान्य छोटे भाई बहन उनके कहर का शिकार बन जाते हें. माता पिता भी इसके शिकार हो जाते हें. ऐसे बच्चों को बहुत ही धैर्यपूर्वक सभांलने की जरूरत होती हें. .
--बुलाने पर बच्चे कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं करते हें या अनसुना कर देते हें.
--अक्सर ऐसे बच्चे आँखें मिलने में कतराते हें
--समूह में खेलने या पढ़ाने में उनको उलझन होती है और वे अधिक लोगों के बीच रहना पसंद नहीं करते हें.
--अपनी रूचि स्वयं कभी जाहिर नहीं करते हें. आपके पूछने पर भी बतलाने में कोई रूचि नहीं दिखलाते हें.
--अपनी दिनचर्या में समरसता चाहते हें , उन्हें कोई परिवर्तन पसंद नहीं होता है और परिवर्तन करने पर वे चीखने चिल्लाने भी लगते हें.
--अभिभावकों के लिए :
ऐसे बच्चों के विषय में माता पिता को जल्दी ही निर्णय ले लेना चाहिए. जैसे ही उन्हें लगे कि उनका बच्चा सामान्य से अलग है , उसको डॉक्टर को दिखा कर राय ले लेनी चाहिए. अब इस तरह के बच्चों के लिए अलग से सेंटर खुल गए हें और इसके लिए सरकारी तौर पर भी कई संस्थान हें जहाँ पर इसके लिए ओ पी डी खुले हुए हें और इसके लिए विशेष प्रशिक्षण देकर ओकुपेशनल थेरेपिस्ट तैयार किये जाते हें.
नई दिल्ली में इसके लिए - पं दीन दयाल उपाध्याय विकलांग संस्थान , ४ विष्णु दिगंबर मार्ग पर है. जहाँ पर जाकर अपने बच्चे का परीक्षण करवा कर आप उसके भविष्य के प्रति जागरूक होकर उन्हें एक बेहतर जीवन जीने के लिए तैयार कर सकते हें. इन बच्चों के इलाज की दिशा इनके व्यवहार के अध्ययन के पश्चात् ही निश्चित की जाती हें क्योंकि उनके लक्षणों के अनुसार ही उन्हें थेरेपी दी जाती है.
--इसके ठीक होने का कोई एक उपाय नहीं है बल्कि इसका सुनिश्चित इलाज भी नहीं है बस आपके बच्चे को अपने कार्यों के लिए जो वे खुद नहीं कर सकते हें आत्मनिर्भर होने लायक बनाने के लिए प्रशिक्षण और थेरेपी दी जा सकती है.
--अलग अलग बच्चों में ऑटिज्म की डिग्री अलग अलग होती है, अतः इसके लिए उनके आत्मनिर्भर होने में कुछ समय लग सकता है. वैसे तो सारे जीवन ही इसकी जरूरत हो सकती है लेकिन उचित प्रशिशन और शिक्षा उनको बहुत कुछ सामान्य जीवन जीने योग्य बना देती है.
--इसके शिकार बच्चे कभी कभी स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो जाते हें लेकिन इसके लिए उनके माता पिता को बहुत ही मेहनत करनी पड़ती है. इसका एक उदाहरण मेरे सामने है. मेरी एक कलीग की बड़ी बच्ची उसके जन्म के समय उन्होंने गर्भपात के लिए कोई दवा खाई थी और उससे गर्भपात तो नहीं हुआ बल्कि होने वाली बच्ची ऑटिज्म का शिकार हो गयी. उसको याद बहुत देर में होता था. खाने में रूचि नहीं लेती थी. उसका चेहरा भी उसके असामान्य होने का प्रभाव दिखलाता था. लेकिन उनकी माँ के परिश्रम के चलते उन्होंने अपनी बेटी के साथ खुद भी घंटों मेहनत करके उसको बी. कॉम तक शिक्षा दिलवाने में सफल हुई और उसके बाद आगे की तैयारी में हें. ऐसे जागरूक माता पिता नमन के काबिल हें.
अगर किसी का भी बच्चा इस तरह से ऑटिज्म का शिकार है तो उसके लिए हताश न हों बल्कि उसके लिए बेहतर प्रयास करें कि वह बच्चा पूरे जीवन औरों पर निर्भर न होकर अपने कामों के लिए आत्मनिर्भर हो सके तभी आपका दायित्व पूर्ण होता है.
वैसे तो ऐसे बच्चे सदियों से पाए जाते हें लेकिन इधर ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। इस रोग का सीधा सम्बन्ध बच्चे की मष्तिष्क में स्थित नर्वस सिस्टम से होता है। जो जन्मजात होता है और इसके लिए कोई भी स्थायी इलाज नहीं होता है , हाँ इतना अवश्य है कि उस बच्चे को इस काबिल बनाया जा सकता है कि वह अपने कामों को खुद कर सके और यह भी उसके ऑटिज्म के प्रकार पर निभर करता है कि उसको किस तरह की थेरेपी की जरूरत है । इसका निर्धारण उसको चिकित्सा देने वाला खुद ही निश्चित करता है। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि अब इस तरह के बच्चों में बढ़ोत्तरी का कारण क्या है?
-- इस तरह के बच्चों की बढती संख्या के पीछे आज अपने करियर के लिए संघर्ष कर रहे माँ बाप अपने की चिंता में बच्चे को जन्म देने के बारे में देर से सोचते हें ।
-- वैसे भी पढ़ाई और करियर के सेट होते होते आज कल विवाह की उम्र बढ़ रही है और विवाह की बढ़ती हुई उम्र इसका एक बड़ा कारण बन गया है।
--अगर परिवार में ऐसे सदस्य पहले से हों तब भी ऑटिज्मग्रस्त बच्चे हो सकते हें।
--जन्म के समय बच्चे का सामान्य व्यवहार न होना भी इस तरह की स्थिति को जन्म दे सकती है जैसे कि बच्चे का पैदा होते ही न रोना। बच्चे का गर्भ से बाहर आते ही रोने से उसके मष्तिष्क में रक्त का संचार पूरी तरह होने लगता है और सके मष्तिष्क में स्थित सारी रक्तवाहिनियाँ सुचारू रूप से है।
-- -- कभी कभी देखने में आता है कि बच्चा एकदम सामान्य होता है लेकिन अचानक तेज बुखार आ जाने से उसके बाद उसके व्यवहार या फिर शारीरिक और मानसिक क्रियायों में बदलाव आ जाता है . ऐसा भी संभव है तेज बुखार की स्थिति में मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है और कभी कभी इससे ब्रेन हैमरेज और पक्षाघात तक हो जाता है.
ऑटिज्म के शिकार बच्चों के क्या लक्षण हो सकते हें . पहले ही बता दूं कि ऑटिज्म के कई प्रकार हो सकते हें और इनमें से कुछ तो ऐसे भी हो सकते हें --
१. अति सक्रिय -- इसमें बच्चे जरूरत से अधिक शोर करने वाले , उठापटक करने वाले , चीखने और चिल्लाने वाले हो सकते हें .
२ .अति निष्क्रिय - इसमें बच्चे खामोश प्रवृत्ति के होते हें , वे बात सुन लेते हें तब भी कोई रूचि नहीं दिखाते हें या फिर आप उनसे कोई बात कहें तो आपके कहने के कई मिनट बाद वे उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हें.
बच्चों के लक्षण ---
कुछ इस प्रकार के भी हो सकते हें कि एकांत में रहना पसंद करते हों. उन्हें समूह में रहना पसंद नहीं होता है. किसी से अधिक मिलना जुलना भी वे पसंद नहीं करते हें.
--कभी कभी उन्हें किसी का अपने को छूना भी पसंद नहीं होता है.
--अँधेरे से डरते हें, अकेले से डरते हें.
--किसी विशेष वस्तु प्रेम भी हो सकता है , जैसे कि कोई भी चीज मैंने एक बच्चे को देखा उसको ढक्कन से विशेष प्रेम था किसी भी चीज का ढक्कन हो. अगर आप उसको हटा देंगे तो वह किसी और चीज के ढक्कन खोल कर ले लेगा.
--ऐसे बच्चे कभी कभी गले लगा लेने पर बहुत खुश हो जाते हें.
--कुछ अपने सामने वाले को मारने पीटने में भी आनंद लेते हें, ऐसे में सामान्य छोटे भाई बहन उनके कहर का शिकार बन जाते हें. माता पिता भी इसके शिकार हो जाते हें. ऐसे बच्चों को बहुत ही धैर्यपूर्वक सभांलने की जरूरत होती हें. .
--बुलाने पर बच्चे कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं करते हें या अनसुना कर देते हें.
--अक्सर ऐसे बच्चे आँखें मिलने में कतराते हें
--समूह में खेलने या पढ़ाने में उनको उलझन होती है और वे अधिक लोगों के बीच रहना पसंद नहीं करते हें.
--अपनी रूचि स्वयं कभी जाहिर नहीं करते हें. आपके पूछने पर भी बतलाने में कोई रूचि नहीं दिखलाते हें.
--अपनी दिनचर्या में समरसता चाहते हें , उन्हें कोई परिवर्तन पसंद नहीं होता है और परिवर्तन करने पर वे चीखने चिल्लाने भी लगते हें.
--अभिभावकों के लिए :
ऐसे बच्चों के विषय में माता पिता को जल्दी ही निर्णय ले लेना चाहिए. जैसे ही उन्हें लगे कि उनका बच्चा सामान्य से अलग है , उसको डॉक्टर को दिखा कर राय ले लेनी चाहिए. अब इस तरह के बच्चों के लिए अलग से सेंटर खुल गए हें और इसके लिए सरकारी तौर पर भी कई संस्थान हें जहाँ पर इसके लिए ओ पी डी खुले हुए हें और इसके लिए विशेष प्रशिक्षण देकर ओकुपेशनल थेरेपिस्ट तैयार किये जाते हें.
नई दिल्ली में इसके लिए - पं दीन दयाल उपाध्याय विकलांग संस्थान , ४ विष्णु दिगंबर मार्ग पर है. जहाँ पर जाकर अपने बच्चे का परीक्षण करवा कर आप उसके भविष्य के प्रति जागरूक होकर उन्हें एक बेहतर जीवन जीने के लिए तैयार कर सकते हें. इन बच्चों के इलाज की दिशा इनके व्यवहार के अध्ययन के पश्चात् ही निश्चित की जाती हें क्योंकि उनके लक्षणों के अनुसार ही उन्हें थेरेपी दी जाती है.
--इसके ठीक होने का कोई एक उपाय नहीं है बल्कि इसका सुनिश्चित इलाज भी नहीं है बस आपके बच्चे को अपने कार्यों के लिए जो वे खुद नहीं कर सकते हें आत्मनिर्भर होने लायक बनाने के लिए प्रशिक्षण और थेरेपी दी जा सकती है.
--अलग अलग बच्चों में ऑटिज्म की डिग्री अलग अलग होती है, अतः इसके लिए उनके आत्मनिर्भर होने में कुछ समय लग सकता है. वैसे तो सारे जीवन ही इसकी जरूरत हो सकती है लेकिन उचित प्रशिशन और शिक्षा उनको बहुत कुछ सामान्य जीवन जीने योग्य बना देती है.
--इसके शिकार बच्चे कभी कभी स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो जाते हें लेकिन इसके लिए उनके माता पिता को बहुत ही मेहनत करनी पड़ती है. इसका एक उदाहरण मेरे सामने है. मेरी एक कलीग की बड़ी बच्ची उसके जन्म के समय उन्होंने गर्भपात के लिए कोई दवा खाई थी और उससे गर्भपात तो नहीं हुआ बल्कि होने वाली बच्ची ऑटिज्म का शिकार हो गयी. उसको याद बहुत देर में होता था. खाने में रूचि नहीं लेती थी. उसका चेहरा भी उसके असामान्य होने का प्रभाव दिखलाता था. लेकिन उनकी माँ के परिश्रम के चलते उन्होंने अपनी बेटी के साथ खुद भी घंटों मेहनत करके उसको बी. कॉम तक शिक्षा दिलवाने में सफल हुई और उसके बाद आगे की तैयारी में हें. ऐसे जागरूक माता पिता नमन के काबिल हें.
अगर किसी का भी बच्चा इस तरह से ऑटिज्म का शिकार है तो उसके लिए हताश न हों बल्कि उसके लिए बेहतर प्रयास करें कि वह बच्चा पूरे जीवन औरों पर निर्भर न होकर अपने कामों के लिए आत्मनिर्भर हो सके तभी आपका दायित्व पूर्ण होता है.
चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन ........
ये यथार्थ की मिट्टी में सने संस्मरण जीवन के उस पक्ष को उजागर करने वाले हें जो सहने वाले की हिम्मत की दाद तो देते ही हें साथ ही एक प्रेरणा का आधार भी बन जाते हें। मैंने अपने ब्लोगर साथियों से इस दिशा में अपने संस्मरण भेजने का आग्रह किया था लेकिन कुछ लोगों ने तो कह दिया कि जीवन में कभी संघर्ष करना ही नहीं पड़ा और कुछ लोगों ने उत्तर हाँ या न में भी देने के काबिल नहीं समझा (क्षमा याचना सहित) क्योंकि उनके स्तर को देखते हुए शायद इस ब्लोगर जगत में मेरी उनसे कोई बराबरी नहीं है लेकिन मैं तो झुक ही सहयोग का अनुरोध कर रही थी। खैर जिनका मुझे सहयोग मिला और जिनका आश्वासन लिए आज भी मैं इन्तजार कर रही हूँ सब को मेरा हार्दिक धन्यवाद ।
ये श्रंखला मैं बंद नहीं कर रही हूँ। एक काउंसलर होने के नाते और जीवन की गहराई को देखते हुए एक नहीं बहुत से लोगों से मुलाकात हुई जो इस संघर्ष से जूझते हुए आगे बढे या फिर आज भी जूझ रहे हें उनकी हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी। बहुत नामी न सही लेकिन जीवन जीने का हक तो सभी को एक जैसा है और फिर संघर्ष चाहे किसी सेलिब्रिटी ने किया हो या फिर आम आदमी ने उसकी शिद्दत कम नहीं हो जाती है और उससे मिलनी वाला संबल भी कम नहीं होता है। इसलिए इसको मैं आगे चलाना चाहती हूँ और इस दिशा में आप सभी से पूछना चाहती हूँ कि क्या मेरा ये प्रयास मेरे पाठक बंधुओं को पसंद आएगा या फिर सभी अपने ब्लोगर साथियों के संस्मरण तक ही सीमित रखना चाहते हें। इस दिशा में आपसे सुझाव मांग रही हूँ आशा करती हूँ कि आप सभी इस दिशा में अपने विचारों से अवगत कराएँगे।
संघर्ष तो उनका भी वन्दनीय है, जो साठ के बाद भी ढो रहे हें बोझ,
कहते हैं कि ये बोझ वह खुद नहीं ढोते हें पेट की आग ढ़ोती है।
ये श्रंखला मैं बंद नहीं कर रही हूँ। एक काउंसलर होने के नाते और जीवन की गहराई को देखते हुए एक नहीं बहुत से लोगों से मुलाकात हुई जो इस संघर्ष से जूझते हुए आगे बढे या फिर आज भी जूझ रहे हें उनकी हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी। बहुत नामी न सही लेकिन जीवन जीने का हक तो सभी को एक जैसा है और फिर संघर्ष चाहे किसी सेलिब्रिटी ने किया हो या फिर आम आदमी ने उसकी शिद्दत कम नहीं हो जाती है और उससे मिलनी वाला संबल भी कम नहीं होता है। इसलिए इसको मैं आगे चलाना चाहती हूँ और इस दिशा में आप सभी से पूछना चाहती हूँ कि क्या मेरा ये प्रयास मेरे पाठक बंधुओं को पसंद आएगा या फिर सभी अपने ब्लोगर साथियों के संस्मरण तक ही सीमित रखना चाहते हें। इस दिशा में आपसे सुझाव मांग रही हूँ आशा करती हूँ कि आप सभी इस दिशा में अपने विचारों से अवगत कराएँगे।
संघर्ष तो उनका भी वन्दनीय है, जो साठ के बाद भी ढो रहे हें बोझ,
कहते हैं कि ये बोझ वह खुद नहीं ढोते हें पेट की आग ढ़ोती है।
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