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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१७)




पल्लवी सक्सेना :

संघर्ष एक ऐसा शब्द है जिससे रूबरू कमोबेश सभी को जीवन में होना ही पड़ता है वह बात और है कि कभी लम्बा होता है और कभी छोटा । होता तो जरूर है । ये तो जन्म के बाद से ही शुरू हो जाता है क्योंकि कहते हें न कि बगैर रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती है । बस इसी तरह से अपनी जरूरतों को न बोलने तक वह पूरी करने के लिए रोने का सहारा लेता है ये भी एक संघर्ष है लेकिन उसके बड़े होने के साथ साथ ही उसकी बुद्धि का विकास होता है और संघर्ष के स्वरूपों का भी। आखिर में जब सही अर्थों में वह अपने जीवन को जीने के लिए प्रयास करने लगता है तब उसको पता चलता है कि इस में कितना संघर्ष किया। आज की प्रस्तुति पल्लवी सक्सेना की है भले ही उनकी अपनी न सही लेकिन उन्होंने किसी के संघर्ष को स्वीकार कर प्रस्तुति के लिए अनुशंसा की है और कुछ न कुछ हमें सीखने को तो हर पाठ से मिलता है।


संघर्ष
संघर्ष की यदि बात करें तो यह एक ऐसा शब्द है जो शायद पैदा होते ही मानव जीवन से जुड़ जाता है। जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तब से अपनी बात दूसरों को समझाने के लिए संघर्ष करता है और उसके जीवन का यह संघर्ष निरंतर उसके जीवन में आने वाले पड़ावों के हिसाब से चलता रहता है जैसे जब वह शिशु अवस्था से निकलता है तो उसके बाद आता है विद्यार्थी जीवन उसमें भी नित नई चीजों से उसका संघर्ष चला करता है, जैसे -जैसे उसकी जानकारी बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उसका संघर्ष भी बढ़ता जाता है। पहले स्कूल में होने वाली परीक्षा में पहले नंबर आने के लिए, अपने सहपाठियों से संघर्ष, फिर यदि अच्छे नंबरों से पास हो गया तो ठीक वरना अच्छे अंकों से उत्तीर्ण न होने के कारण पहले स्कूल वालों से, फिर घर पर माता-पिता के सवालों के और समझाने के कारणो को लेकर संघर्ष। इन सब से जैसे तैसे निजात मिल भी जाये तो फिर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान फिर वही संघर्ष की कोन सा विषय चुने कि आगे उसे अपने जीवन में जीविका चलाने हेतु फिर कोई और संघर्ष ना करना पड़े। किन्तु उस अवस्था में उसे दोहरा संघर्ष करना पड़ता है क्यूंकि पढ़ाई के साथ सामाजिक दबाव भी बढ़ने लगता है और लोग क्या कहेंगे जैसे प्रश्न खड़े होना प्रारंभ हो जाते हैं, जिसके दबाव में आकर जीवन का संघर्ष जीवन लक्ष्य प्राप्त करने हेतु और भी ज्यादा बढ़ जाता है।

ऐसे ना जाने कितने संघर्ष है इस एक मानव जीवन में जिन्हें एक व्यक्ति को कभी खुद को स्थापित करने के लिए, तो कभी अपने परिवार के लिए, तो कभी समाज के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। यह संघर्ष सभी के जीवन में होते हैं चाहे वह लड़की हो या लड़का दोनों के अपने-अपने दायित्वों पर निर्भर रहता है उनके जीवन से जुड़ा संघर्ष विद्यार्थी जीवन में तो लगभग दोनों के संघर्ष एक से ही होते हैं। बदलाव आता है शादी के बाद, शादी के बाद यदि कोई लड़की अपने जीवन को कोई नया मोड देना चाहे तो उसे अपने ही परिवार के साथ ही संघर्ष करना पड़ता है, नई-नई शादी में दूसरे परिवार से आने के बाद ससुराल में आकर खुद को स्थापित करने के लिए भी हर एक लड़की को थोड़े बहुत छोटे-मोटे संघर्ष करने पड़ते हैं जो कि पहले तो बहुत ही ज्यादा हुआ करते थे मगर अब ज्यादातर लोग पढे लिखे होते हैं इसलिए अब यह संघर्ष, संघर्ष न रहकर समझोतों में बदल गए है। ऐसी ही एक संघर्ष की एक छोटी सी कहानी आज मैं आपको बताती हूँ।

मेरे जीवन में भी एक ऐसी नारी है जिसने अपने जीवन में कड़ा संघर्ष करके अपने परिवार को बखूबी चलाया अपना नाम बनाया, अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा के साथ-साथ बहुत ही अच्छे संस्कार सिखाये, उस महान महिला का नाम है उषा श्रीवास्तव जो कि मेरी सासु माँ हैं। उनका विवाह 18 वर्ष की आयू में एक संयुक्त परिवार में हुआ था और उस जमाने में सासों की क्या भूमिका होती है, यह मुझे आप सब को शायद बताने की जरूरत नहीं है। उनकी सासु माँ यानि मेरे पति देव की दादी का स्वभाव उन दिनों बहुत ही कठोर हुआ करता था ,ऐसे में घर की सबसे बड़ी बहू होने के नाते पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी केवल मेरी सासु माँ पर आ गयी थी। यहाँ तक की अपने दोनों छोटे देवरों की शादी तक मेरे सास-ससुर जी ने मिलकर ही कारवाई थी और फिर वही हुआ जैसा फिल्मों में होता है किसी कारणवश आपसी मतभेद बढ़े और नौबत यहाँ तक आ गई, कि सब अलग-अलग हो गए। जिस वक्त हमारा परिवार अलग हुआ उस वक्त बहुत ही बुरे हालात थे, तीन बच्चों का साथ ऊपर से उस वक्त पापा जी (ससुर जी) की नौकरी भी नहीं थी, ऐसे में किसी नए शहर में जाकर एक नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करना आसान बात नहीं होती। मगर उन्होने शुरुआत की, पहले सब सिंगरोली रहे और फिर जबलपुर आ गये, मगर और तो और कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी वहाँ आने के बाद मम्मी जी (सासु माँ) ने शहनाज़ बियूटी पार्लर का कोर्स किया जिसकी परीक्षा उन्होने दिल्ली जाकर दी, ऐसे हालातों में कम शिक्षित होते हुए भी इतने मनोबल के साथ आगे बढ़ना भी कम बड़ी बात नहीं है जिसके अंतर्गत उन्हे पापा जी का भी पूर्ण सहयोग मिला इसलिए उनकी कामयाबी का जितना श्रेय मम्मी जी को जाता है उतना ही पापा जी को भी जाता है, यह पापा जी की ही होंसला अफ़ज़ाई थी जिसके बल पर मम्मी जी को कामयाबी का यह मुक़ाम हांसिल हो सका। खैर फिर उन्होने वह परीक्षा देने के बाद, कुछ दिन किसी दूसरे के पार्लर में काम किया, इस दौरान घर में सुबह जल्दी उठकर बच्चों को तैयार करना, उनका टिफिन ही नहीं बल्कि पूरा खाना बनाकर टाइम पर पार्लर जाना और टाइम से आकर फिर घर का सारा काम निपटाना। क्यूँकि उन दिनों पैसे की तंगी के कारण बाई रखना भी संभव नहीं था। इस सबके चलते उनको सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिल पाती थी, फिर भी उन्होने हार नहीं मानी और अपने बच्चों को जहां तक हो सका अच्छे से अच्छा खाना-पीना, शिक्षा दिलवाई क्यूँकि यही वो उनका संघर्ष का समय था, फिर धीरे-धीरे एक-एक पैसा जोड़कर मम्मी जी ने वही पार्लर खरीद लिया तब तो ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गई थी। क्यूंकि शुरुआत में मम्मी जी को ही सारा काम संभालना पड़ता था, फिर जब धीरे-धीरे उनका नाम बनना शुरू हुआ तब जाकर एक-एक करके उन्होने अपने पार्लर में दूसरी नई लड़कियों को सीखा कर तैयार किया और उन्हें वहीं नौकरी दी। क्यूंकि व्यापार में अपना नाम बनाने के लिए आपकी भूमिका के साथ साथ आपके काम करने वालों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिनका सहयोग ही आपके व्यापार को कामयाब बना सकता है। उनके मीठे स्वभाव के कारण उनको अपने कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग मिला। दिन रात यूं ही मेहनत करने के बाद उनको वो मुकाम मिला कि आज आपने इलाके में उनका आपना एक नाम है अपनी एक पहचान है, हर कोई उन्हें उनके काम के साथ नाम से जानता है, उनके स्वभाव से जानता है। इतने सालों व्यापार करने के बाद भी उनका स्वभाव में वो व्यापारियों वाला छल कपट नहीं आया जिसके आधार पर व्यापारी का व्यापार चलता है और शायद यही वो वजह है जो उनकी एक अलग पहचान का कारण है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. संघर्ष से व्यक्तित्व और निखरता है।

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  2. संघर्ष का दूसरा नाम जी जीवन है ……………संघर्ष से ही कुन्दन बना जाता है।

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  3. पल्लवी जी ...जब तक जीवन हैं तब तक संघर्ष हैं...एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ..पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया कि संघर्ष रंग लाया .....

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  4. प्रेरणादायी संघर्ष - इतने संघर्षों से जो इन्सान उबर कर सफलता हासिल करता है, उसमें भला छल कपट कहाँ से आयेगा. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.

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  5. मन में निश्चय कर यदि लग जाया जाये तो संघर्ष कर्तव्य बन जाता है।

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