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गुरुवार, 7 मार्च 2013

" अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस "

            

          " अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस " को हम एक दिवस की तरह हमेशा मानते हैं और फिर दूसरे दिन इस दिन कहे गए सारे वादों और संकल्प को भूल कर जिन्दगी फिर उसी ढर्रे पर चलने लगती है. इस बार सोचा कुछ ऐसा करें कि  कुछ लोगों कीं जिंदगियों से दो चार किया जाए . वह उस समय भी संघर्ष कर रही थी, जब वह घर की चहारदीवारी के अन्दर रहती थी और वह आज भी संघर्ष कर रही है .  मेरे अनुसार इस दिवस की सार्थकता तभी कुछ प्रतिशत हम सिद्ध कर सकते हैं जब हम उनके दिल और आँखों में झांक कर देखें कि  कहाँ आंसुओं के कतरे सूख चुके हैं , अब होंठों की हंसी ने जीवन में जगह बना ली है लेकिन उनके राह के काटों के निशान सिर्फ उनके पैरों में ही शेष नहीं है बल्कि वे अगर झांक कर देखें तो दिल में भी कहीं शेष है . 

                 जिन्दगी कहीं  भी फूलों की सेज नहीं है . एक नारी के लिए जन्म से लेकर अपने जीवन के अंत तक कितने तरीके से वह इस बात को सोचने के लिए मजबूर होती है की वह नारी क्यों हुई? सबकी जिन्दगी बड़े घरानों में पैदा हुए नारियों की तरह से नहीं है . सबके लिए जीवन के रास्ते  पहले से पहले खुले नहीं होते हैं कि वे उनपर चलती चली जाएँ . अपनी राहें उन्होंने खुद बनायीं हैं और उसमें बिछे काटों को खुद ही काटा है नहीं तो लहुलुहान होकर उन पर चलते रहना उनकी नियति बना दी गयी है. हम कहते हैं कि  नारी सशक्तिकरण हो रहा है , इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता है लेकिन इस महिला सशक्तिकरण कहें तो विश्व की कितने प्रतिशत नारियां शक्तिशाली बन चुकी है , आज भी हम कह सकते हैं कि नारियों का आत्मनिर्भर होना , नौकरी करना या फिर घर से बाहर निकल कर कुछ करना उनके शक्तिशाली होने का प्रतीक नहीं है . कितनी महिलायें नौकरी करती हैं लेकिन फिर भी वे परतंत्र है क्योंकि  उनका वेतन उनके परिवार की संपत्ति होती है. कहीं कहीं तो उनको  अपने वेतन से कुछ अंश भी लेकर अपने हाथ से खर्च करने का हक नहीं होता है. एक आवरण पड़ा होता है उनके जीवन के भीतर और बाहर से दिखने वाले स्वरूप पर. कुछ ऐसी ही जिंदगियों की संघर्ष गाथा प्रस्तुत करने का हमारा प्रयास है और आशा करती हूँ कि अगर इसको पढ़ने वाले साथियों के दृष्टि में भी कोई ऐसी महिला संज्ञान में हो तो उसके संघर्ष को एक रूप देकर हमें भेजने की कृपा करें . उसमें नाम के उजागर करने की कोई भी जरूरत नहीं है. वो एक गाथा ही काफी है. 
                 वे हमारे अपने हों या न हों लेकिन अगर वे हमारे संज्ञान में हैं , जो अपनी  जिन्दगी की उन चुनौतियों से जूझते हुए अपने पैरों पर खड़े होकर सांस ले रहे हैं . इस मुकाम तक आते आते जो झेला वह एक मिसाल ही तो है . कहीं न कहीं वे लोग कुछ सन्देश दे जाते हैं - उन्हें मैं एक श्रृंखला में शामिल करके उनके संघर्ष के सफर की दास्ताँ को एक रूप देकर यहाँ प्रस्तुत करके महिला दिवस पर उनके हौसले को सलाम करती हूँ . 

                            

10 टिप्‍पणियां:

  1. उहापोह सी स्थिति लगती है , कभी लगता है संघर्ष अभी घर के भीतर और बाहर एक सा है , कभी लगता है सशक्तिकरण की दिशा भटक गयी है !

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