वैसे माँ पापा क्या किसी एक दिन ही याद किये जाते हैं लेकिन हाँ इस बहाने अपने जनक से सबको रूबरू करा सकते हैं। हमारा अस्तित्व रहने तक तो हम उन्हें यादों में किताबों में और अपनी कलम से कुछ लिख कर उन्हें उस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं जिसे हर कोई नहीं जान सका।
मेरे पापा बिलकुल मस्त कोई चिंता उन्हें सालती नहीं थी। वे चाहे अपना भला न कर पाएं अगर उनके वश में है तो दूसरे के हित के लिए सबसे आगे रहते थे। दया , ममता और परमार्थ के किस्से तो मैं गिना नहीं सकती लेकिन एक बहुत छोटी सी बात उनकी तस्वीर को उजागर कर देगी। तब मेरी शादी हो चुकी थी सो मैं उस घटना की चश्मदीद गवाह तो नहीं हूँ लेकिन पता चला तो मन में बहुत गर्व महसूस हुआ।
हमारे घर के आस पास एक बूढा बन्दर जो उछलने कूदने में असमर्थ हो चूका था। पापा उसको खाना और पानी बराबर देते रहे। आसपास के लोग भी देते रहते थे लेकिन उसका पूरा ध्यान रखना जैसे पापा का काम था। कई सालों तक वह वहां रहा और धीरे धीरे वह परिवार के सदस्य की तरह हो चूका था। आखिर एक दिन उसने अंतिम साँस ली। जैसा कि जानवरों के मामले में होता है कि उन्हें कहीं शहर के बाहर फ़ेंक दिया जाता है और वे चील और गिद्ध का भोजन बन जाते। यही नियति रही है। जब उस बन्दर के लिए भी यही कहा गया तो पापा ने मना कर दिया और उन्होंने किसी बुजुर्ग की तरह उसकी अर्थी तैयार करवाई और घंटे घड़ियाल के साथ उसकी शव यात्रा निकाल कर उसका अंतिम संस्कार करवाया। (अभी भी छोटी जगहों पर बहुत बुजुर्ग लोगों की अंतिम यात्रा गाजे बाजे या घंटे घड़ियाल के साथ श्मशान तक ले जाइ जाती है। )
मुझे अपने पापा के जीवन की कई घटनाएँ ऐसी भी याद हैं जिनमें बाद में उन्हें हम लोगों ने ही कहा कि क्यों आप भलाई करते हैं और नुक्सान अपना कर बैठते हैं। लेकिन वो तो जैसे थे वैसे ही रहे।