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गुरुवार, 2 जून 2016

पाठ्यक्रम : नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य !

                             नयी सरकार और नयी शिक्षा नीति का निर्माण पर कार्य आरम्भ होने जा रहा है । पाठ्यक्रम निश्चित किया जाने वाला है।  नयी शिक्षा नीति क्या होगी ? इस विषय में नयी सरकार का मानना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को रोजगार देने की दिशा में सहायक होनी चाहिए।इस के अनुसार बच्चों की बुनियादी शिक्षा के बारे में भी विचार होना चाहिए। जो भी हमें सिखाना है वह उनके कोमल मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं और इसी लिए बुनियाद ही नैतिकता और सांस्कृतिक मूल्यों से पूर्ण होना चाहिए।
                            एक दो दिन पहले ही पढ़ा था कि  जल्द ही बच्चों के पाठ्यक्रम को आधा करने वाले है लेकिन ये तो नहीं पता कि कटौती  किन किन विषयों या फिर अध्यायों में करने वाले हैं। वर्तमान में बच्चों पर बढ़ता पाठ्यक्रम का बोझ ज्यादा तो है ही , उनके शारीरिक विकास के लिए और खेलने और कूदने के लिए समय नहीं होता है।  हर बच्चा सिर्फ होमवर्क के बोझ तले दबा जा रहा है और समय बेसमय अगर वह छुट्टी भी पाया तो न बाहर खेलने के समय होता है और ना मित्रों का साथ।  फिर वह वीडिओ गेम में लग जाना ज्यादा उचित समझता है और आँखें , दिमाग और अनावश्यक प्रतिस्पर्धा  के भावों से वह घिर जाता है।  जाने से पहले ही बच्चे घर के माहौल के अनुसार राइम्स और विडिओ गेम की पूरी जानकारी मिल जाती है और फिर वे उसी को अपना आदर्श मान पर चलने लगते हैं।  कभी कभी बच्चे अपने आदर्श उन्हें में से खोज लेते हैं और कभी कभी उनके तरह ही कार्य करने की कोशिश भी करते हैं। इसके लिए भी उनको स्कूल से ही निर्देश जारी करवाने होंगे कि बच्चे इन सब चीजों से दूर रहेंगे। स्कूल चाहें अंग्रेजी माध्यम के हों या फिर आंगनबाड़ी और प्राथमिक स्तर का एक ही शिक्षा दी जानी चाहिए। 
         शिक्षा मानव जीवन की ऐसी नींव डालती  है , जो उसके मनो-मष्तिष्क में गहरे पैठ जाती है और इसके कारण ही बच्चों के जीवन में संस्कार या फिर अपने समाज , देश और परिवार के प्रति एक अवधारणा बन जाती है।  चाहे घर हो , स्कूल हो या फिर उसका अपना दायरा - उसके चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।  आज के सन्दर्भ में जब कि चरित्र और संस्कार का निरन्तर ह्रास होता चला जा रहा है और हम इसकी जिम्मेदारी बच्चों की संगति , टीवी , संचार के बढ़ते हुए साधनों को देने लगे हैं।  ऐसा नहीं है कि  ये जिम्मेदार नहीं है लेकिन जब घर की नींव ही कच्ची रखेंगे तो ऊपर की दीवारों के स्थायित्व की आशा कैसे कर सकते हैं ? फिर दोष आधुनिक शिक्षा पद्धति और शिक्षकों के पढ़ाने पर भी ऊँगली उठाने लगते हैं लेकिन ये शिक्षक भी तो वहीँ सब और वहीँ से पढ़ कर  आ रहे हैं , जहाँ आज की पीढ़ी प्रवेश लेकर पढ़ने जा रही है।
                   देश का एक ही इतिहास और एक ही संस्कृति होती है।  उसको हम शिक्षा के द्वारा ही तो हस्तांतरित करते चले आ रहे हैं लेकिन उससे कट कर हम अपने आपको संचित नहीं कर पाएंगे।  हम जहाँ रहते हैं और जिस भारत भूमि पर रहते हैं , उसकी संस्कृति और इतिहास सबसे प्राचीन माना जाता है बल्कि कहें कि वह प्रमाण के साथ उपलब्ध भी है। लेकिन हम धीरे धीरे नए आविष्कारों के नाम पर पाठ्यक्रम को विस्तृत करते चले जा रहे हैं और उसमें नवीन विषयवस्तु को शामिल भी करते जा रहे हैं।  शिक्षा के जितने भी संगठन है उनका अपना अलग अलग पाठ्यक्रम है और उस पाठ्यक्रम को निर्धारित करने वाले सुधी और विद्वान हैं लेकिन उनकी अपनी सोच के अनुसार वह समय समय पर पुनरीक्षित होता भी है।  पुराने प्रसंगों को कालातीत समझ कर हटा दिया जाता है और नयी उपलब्धियों को इसमें शामिल कर लिया जाता है। इसमें ऐसे भी विचारक हैं जिनकी सोच अलग अलग विचारधाराओं से प्रभावित होती है।  उसके अनुसार देश का इतिहास बदल जाता है। स्वतंत्रता संग्राम के चरित्रों को अपने अपने ढंग से परिभाषित किया जाने लगा है।  हमारी आज की पीढ़ी अपने शिक्षकों से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है और शिक्षक भी वही पढ़ाता है जो किताबों में लिखा होता है। उनका अपना विवेक और ज्ञान जैसे  कुछ होता ही नहीं है। इतिहास से छेड़छाड़ की जाती है और वे पुस्तकें स्कूलों तक पहुँच जाती हैं और पढाई जाती हैं।  खासतौर पर एनसीईआरटी की पुस्तकों को लेकर प्रश्नचिह्न खड़े किये जाते रहते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार भी इस विषय में विचार कर रही है कि प्राथमिक कक्षाओं में एनसीईआरटी की पुस्तकों को लगाया जाएगा।  फिर तो आगे की शिक्षा और परीक्षा प्रणाली में भी परिवर्तन होगा और फिर एक ही पाठ्यक्रम सम्पूर्ण देश में लगाने की योजना न बना ली जाय।  फिर भाषा और माध्यम पर भी विचार करना होगा।  विचार करना और निर्णय लेना अलग अलग चीजें हैं।   लागू करने से पहले उसके परिणामों पर भी सोचना होगा।
                  पाठ्यक्रम में शामिल विकृतियों को समय समय  इंगित किया  जाता रहा है और इस संक्रमण काल में जब सामाजिक और नैतिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है जरूरी है कि पाठ्यक्रम को संशोधित किया जाय। वो महापुरुष और देश के गौरव व्यक्तित्व, जिन्हें उपेक्षित किया जाने लगा है और उनके आचरण आज भी सामयिक है , पुनः पाठ्यक्रम में शामिल  जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि समाज में और देश के महत्वपूर्ण और जागरूक संगठनों में  जागरूकता नहीं है , वो है और उसके लिए बराबर प्रयास किये जा रहे हैं।  
                 "पाठ्यक्रम में परिवर्तन सामयिक आवश्यकता है।  पाठ्यक्रम में निहित विकृतियों को लेकर शिक्षा बचाओ आंदोलन के द्वारा राष्ट्रव्यापी आंदोलन आरम्भ किया गया था।  परिणाम स्वरूप इन विकृतियों को हटाने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा था।  माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने शिक्षा बचाव आंदोलन की याचिका पर पुस्तकों में संशोधन के लिए २००८ में ऐतिहासिक निर्णय दिया था -
                             'भारत वसुंधरा रत्नगर्भा है।  समय -समय पर ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया है कि जिन्होंने  विनाश कर समाज को सुव्यवस्थित किया है।  प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक महापुरुषों की असंख्य श्रृंखला है।  नयी पीढ़ी में भारतीयता का बोध और गौरव  भाव जगाने के लिए ऐसी विभूतियों के जीवन-प्रसंग अत्यन्त प्रेरणादायी है।'
                             इस दृष्टि से नई  शिक्षा नीति के अन्तर्गत संपन्न परिचर्चाओं में अनेक सकारात्मक  सुझाव आये हैं.  शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास सबंधित संस्थाओं यथा - NCERT , CBSE , ICSE तथा अन्य राज्य स्तरीय बोर्ड उच्च शिक्षा संस्थाओं  आदि से आह्वान करती है कि  सकारात्मक  एवं प्रेरणादायी सुझावों को लागू करने हेतु शीघ्र प्रयास आरम्भ करे और पाठ्यक्रम को यथोचित सशोधन एवं परिवर्तन करें।
                          प्राथमिक शिक्षा से नैतिक मूल्यों एवं एवं अनुकरणीय चरित्रों का समावेश होना आवश्यक है।  फिर शिक्षा के स्तर के बढ़ने के साथ साथ ही  और  विस्तार से जानकारियों का समावेश करते जाना होगा। नैतिक मूल्यों  से पढ़ने और समझने से भटकती हुई युवा पीढ़ी  संभालने में  सहायक होंगे। आज समाज में भटकती हुई नयी पीढ़ी के बच्चे कहाँ जा रहे हैं ? ये हम सब से छुपा नहीं है लेकिन आने वाली पीढ़ी को दृढ चरित्र और संस्कृति के अनुरूप आचरण करने के लिए घर से लेकर स्कूल तक सब को दृढ संकल्प होना होगा क्योंकि बच्चे घर में सिखाई बातों को अगर स्कूल में वैसा नहीं पाते हैं तो वे अपने शिक्षक की बात को ज्यादा महत्व देते हैं।  स्कूल और घर की शिक्षा में साम्यता होना चाहिए ताकि बच्चे जो स्कूल में पढ़ें और वही उनको घर पर मिले तब वे उसे पथ पर चलने में जरा सा भी संकोच नहीं करते हैं।

                            

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी पोस्ट है दीदी. इसे शिक्षा मंत्रालय तक पहुंचाने की कोशिश करें.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-06-2016) को "मन भाग नहीं बादल के पीछे" (चर्चा अंकः2363) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'स्वावलंबी नारी शक्ति को समर्पित 1350वीं बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.